Tuesday, April 14, 2009

poem - teri kami dikhti hai jab

जब  कभी उनकी कमी दिखती है यारो ,
बस आखो के किसी कोने में नमी दिखती  है  यारो

रुसवाइयो का गुबार यू तो बहुत है  दिल में  लेकिन ,
उसपे एक समझ जमी दिखती  है  यारो

यू तो  साथ चला था , हमारा काफिला मगर  ,
उनकी  मंजिल कही और , रुकी दिखती  है  यारो

चाहत थी उस चादर को ,करीने से सजाने की ,
पर  वो  किसी  और  के  कमरे में , बिछी दिखती  है  यारो

कुरेद के  हम   नाम अपना ,उनकी  जुबा पे लिख आए ,
पर  वो स्याही आजकल , मिटी मिटी  सी दिखती  है  यारो

अपनों का  साथ है  माना , पर  कुछ छूटा है  मुझसे ,
तभी मुस्कराहट मेरी हर महफ़िल में  सिली दिखती  है  यारो

आलम तो  गम का  है , उनके बिछुड़ जाने का ,
पर   ज़माने के  लिए  , ये तबियत खिली दिखती  है  यारो

1 comment:

Anonymous said...

This is great poem