Sunday, July 24, 2011

Befikar raat ki jugaad me

बेफिक्र रात की जुगाड़ में ,सुबह-ओ-दोपहर यूँ उलझा बैठा हूँ
बरामदे में इंतज़ार में बैठी, मौत की उलझने सुलझा बैठा हूँ

बदन की हर नस ,गुहार - ए- आराम नहीं करती आजकल
कानों में खबर है उनके ,मैं जिस्म गिरवी रखवा बैठा हूँ

बारिश की बूदें कतराती है ,मुझ शख्स पे गिरने से
में हर कतरे कतरे को ,भूख प्यास  समझा बैठा हूँ    

खाने का वक़्त कलाई घडी, पूछ के सो जाती है
उसे क्या पता पसीनो को पीके, मैं क्या बचा बैठा हूँ 

अपनी धूप खर्च करके ,चाहे कुछ कमाया या नहीं
हाथो में दबी छुपी लकीरों की, तक़दीर  बदलवा बैठा हूँ

पूछती नहीं है ज़िन्दगी ,काम में इतने जुतने का सबब 'चिराग '
कल रात उसे जरुरत की, फेहरिस्त बतला बैठा हूँ   ---- पुनीत



Teri aankhon ki junban hoti

तेरी आँखों की जुबां होती , कितना आराम होता ,
बिन किये खर्च पसीने , पता तेरा नाम होता,

क्या रंग लुभाता है तुझे ,कौनसा संगीत बहलाता है तुझे, 
समझने में इस शख्स को , सुबह का ना शाम होता ,
तेरी आँखों की जुबां होती , कितना आराम होता ,

हल्की हल्की बारिश में तेरी लटें किस कदर उलझती है,
उस ख्खाब को  देखने में , हमें ना जुकाम होता ,
तेरी आँखों की जुबां होती , कितना आराम होता ,

अपनी मुलाकातों में मैं बतियाता , तू खामोश  थी ,
कोई लब्ज अगर फूटता जाता , तो आज  तू मुकाम होता,
तेरी आँखों की जुबां होती , कितना आराम होता ,

लाख इजहार किया पर काश तू जबाव दे पाती
इस बन्दे से जिंदगी में इसके अलावा ,कुछ और भी काम होता,
तेरी आँखों की जुबां होती , कितना आराम होता ,

कल तितलियों से सुना, तेरी छुअन बड़ी मुलायम है ,
तेरा ये अहसास मेरे मर्ज़ के वास्ते, दवा का काम होता ,
तेरी आँखों की जुबां होती , कितना आराम होता , -----पुनीत